INDIAN JUDICIARY (NYAYAPALIKA)
न्यायपालिका (JUDICIARY)
न्यायपालिका
पूरी न्यायिक प्रणाली के शीर्ष पर हमारा उच्चतम न्यायालय है। हर राज्य या कुछ राज्यों के समूह पर उच्च न्यायालय है। उनके अंतर्गत निचली अदालतों का एक समूचा तंत्र है। कुछ राज्यों में पंचायत न्यायालय अलग-अलग नामों से काम करते हैं, जैसे न्याय पंचायत, पंचायत अदालत, ग्राम कचहरी इत्यादि। इनका काम छोटे और मामूली प्रकार के स्थानीय दीवानी और आपराधिक मामलों का निर्णय करना है। राज्य के अलग-अलग कानून इन अदालतों का कार्यक्षेत्र निर्धारित करते हैं।
प्रत्येक राज्य न्यायिक जिलों में विभाजित है। इनका प्रमुख जिला एवं सत्र न्यायाधीश होता है। जिला एवं सत्र न्यायालय उस क्षेत्र की सबसे बड़ी अदालत होती है और सभी मामलों की सुनवाई करने में सक्षम होती है, उन मामलों में भी जिनमें मौत की सजा तक सुनाई जा सकती है। जिला एवं सत्र न्यायाधीश जिले का सबसे बड़ा न्यायिक अधिकारी होता है। उसके तहत दीवानी क्षेत्र की अदालतें होती हैं जिन्हें अलग-अलग राज्यों में मुंसिफ, उप न्यायाधीश, दीवानी न्यायाधीश आदि नाम दिए जाते हैं। इसी तरह आपराधिक प्रकृति के मामलों के लिए मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट और प्रथम तथा द्वितीय श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट आदि होते हैं।
उच्चतम न्यायालय
देश के उच्चतम न्यायालय में मुख्य न्यायाधीस को मिलाकर कुल 31 न्यायाधीश होते हैं। ये न्यायाधीस 65 वर्ष की उम्र तक अपने पद पर रहते हैं। उच्चतम न्यायालय का मूल कार्यक्षेत्र उन मामलों में हैं जिनका विवाद
1. केंद्र सरकार और किसी एक या कई राज्यों के बीच हो या
2. एक ओर केंद्र सरकार और कोई एक या कई राज्य तथा दूसरी ओर एक या कई राज्यों के बीच हो अथवा
3. दो या कई राज्यों के बीच हो।
देश के किसी उच्च न्यायालय के किसी निर्णय, डिक्री या अंतिम आदेश पर उच्चतम न्यायालय में अपील की जा सकती है, चाहे वह दीवानी, आपराधिक या अन्य प्रकार का मामला हो।
उच्च न्यायालय
उच्च न्यायालय राज्य के न्यायिक प्रशासन का एक प्रमुख होता है। देश में 24 उच्च न्यायालय हैं जिनमें से तीन के कार्यक्षेत्र एक राज्य से ज्यादा है। दिल्ली एकमात्र ऐसा केंद्र शासित प्रदेश है जिसके पास उच्च न्यायालय है। अन्य छह केंद्र शासित प्रदेश विभिन्न राज्यों के उच्च न्यायालयों के तहत आते हैं।
हर उच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश और कई न्यायाधीश होते हैं। उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति देश के मुख्य न्यायाधीश और संबंधित राज्य के राज्यपाल की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। उच्च न्यायालयों के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्त प्रक्रिया वही है सिवाय इस बात के कि न्यायाधीशों के नियुक्ति की सिफारिश संबद्ध उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश करते हैं। ये 62 वर्ष की उम्र तक अपने पद पर रहते हैं न्यायाधीश बनने की अर्हता यह है कि उसे भारत का नागरिक होना चाहिए, देश में किसी न्यायिक पद पर दस वर्ष का अनुभव होना चाहिए या वह किसी उच्च न्यायालय या इस श्रेणी की दो अदालतों में इतने समय तक वकील के रूप में प्रैक्टिस कर चुका हो।
प्रत्येक उच्च न्यायालय को मौलिक अधिकारों की रक्षा करने कि लिए या किसी अन्य उद्देश्य से अपने कार्यक्षेत्र के अंतर्गत किसी व्यक्ति या किसी प्राधिकार या सरकार के लिए निर्दश, आदेश या रिट जारी करने का अधिकार है। यह रिट बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, निषेध, अधिकार-पृच्छा और उत्प्रेषण के रूप में भी हो सकता है। कोई भी उच्च न्यायालय अपने इस अधिकार का उपयोग उस मामले या घटना में भी कर सकता है जो उसके कार्यक्षेत्र में घटित हुई हो, लेकिन उसमें संलिप्त व्यक्ति या सरकारी प्राधिकरण उस क्षेत्र के बाहर के हों।
प्रत्येक उच्च न्यायालय को अपने कार्यक्षेत्र की सभी अधीनस्थ अदालतों के अधीक्षण का अधिकार है। यह अधीनस्थ अदालतों से जवाब तलब कर सकता है और सामान्य कानून बनाने तथा अदालती कार्यवाही के लिए प्रारूप तय करने और मुकदमों और लेखा प्रविष्टियों के तौर-तरीके के बारे में निर्देश जारी कर सकता है।
राष्ट्रीय कर ट्रिब्यूनल
विभिन्न अदालतों में याचिकाओं और मुकदमों की बढ़ती संख्या की वजह से कई मामले वर्षों तक लंबित पड़े रहते हैं। इसलिए एक राष्ट्रीय कर ट्रिब्यूनल के गठन का प्रस्ताव सरकार के समक्ष रखा गया है। यह ट्रिब्यूनल अदालतों में लंबित पड़ी कर से संबंधित सभी मामलों की सुनवाई कर जल्द से जल्द इनका निपटारा करेगा। इसके दायरे में आयकर और सीमा शुल्क व सेवा कर से संबंधित मामले आएंगे।
राष्ट्रीय कर ट्रिब्यूनल अधिनियम, 2005 को 21 दिसंबर 2005 के गजट में भी प्रकाशित कर दिया गया था। हालांकि बाद से इसे देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों में चुनौती भी दी गई थी इस मसले से संबंधित सभी याचिकाओं की एक सम्मिलित याचिका को उच्चतम न्यायालय में भी दायर किया गया, जिसके बाद न्यायालय ने एक आदेश जारी कर सरकार से इस बिल संसोधन पर दोबारा विचार करने के लिए कहा। अदालत के आदेश के बाद सरकार ने इसे 29 जनवरी 2007 को प्रख्यापित किया और अध्यादेश में बदल दिया।
निचली अदालतें
देश भर में निचली अदालतों का कामकाज और उसका ढांचा लगभग एक जैसा है। अदालतों का दर्जा इनके कामकाज को निर्धारत करता है। ये अदालतें अपने अधिकारों के आधार पर सभी प्रकार के दीवानी (civil) और आपराधिक (criminal) मामलों का निपटारा करती हैं। ये अदालतें नागरिक प्रक्रिया संहिता, 1908 और अपराध प्रक्रिया संहिता, 1973 के आधार पर कार्य करती है। अदालतों को इन संहिताओं में उल्लिखित प्रक्रियाओं के आधार पर निर्णय लेना होता है। इन्हें स्थानीय कानूनों का भी ध्यान रखना होता है।
ऑल इंडिया जजेस एसोसिएशन के मामले डब्ल्यू.पी (सिविल) 1022/1989 में उच्चतम न्यायालय द्वारा किए गए निर्देश के अनुसार देश भर में निचली अदालतों में न्यायिक अधिकारियों के पदों में एकरूपता रखी गई है। सीआर. पीसी के तहत, दीवानी मामलों के लिए जिला एवं अतिरिक्त जिला न्यायाधीश, सिविल जज (सीनियर डिविजन) और सिविल जज (जूनियर डिविजन) होते हैं जबकि आपराधिक मामलों के लिए सत्र न्यायाधीश, अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, न्यायिक मजिस्ट्रेट आदि होते हैं। अगर आवश्यक हो तो सभी राज्य सरकारों/केंद्र शासित प्रदेशों के प्रशासन इन श्रेणियों के समान श्रेणियों के माध्यम से वर्तमान पदों में कोई उपयुक्त नियोजन कर सकते हैं।
भारत के संविधान के अनुच्छेद 235 के अनुसार, अधीनस्थ न्यायिक सेवाओं के सदस्यों पर प्रशासनिक नियंत्रण उच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार में आता है। अनुच्छेद 233 और 234 के साथ अनुच्छदे 309 के प्रावधानों के तहत, प्रदत्त अधिकारों के संदर्भ में, राज्य सरकारें उच्च न्यायालय के साथ परामर्श के बाद इन राज्यों के लिए नियम और विनियम बनाएगी। राज्य न्यायिक सेवाओं के सदस्य इन नियमों और विनियमों द्वारा शासित होंगे।
लोक अदालतें
लोक अदालत ऐसा मंच है जहां विवादो/अदालत में लंबित मामलों या दायर किए जाने से पहले ही वादों का सदभावनापूर्ण ढंग से निपटारा किया जाता है। लोक अदालतों को कानूनी सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 के तहत कानूनी दर्जा दिया जाता है। इसके अधिनियम के तहत लोक अदालत द्वारा किए गए निर्णय को वही मान्यता प्राप्त है जो किसी दीवानी कोर्ट के फैसले का होता है, वह अंतिम और सभी पक्षों पर बाध्यकारी होता है और उसके विरुद्ध कोई अपील नहीं की जा सकती।
लोक अदालतें कानूनी सेवा प्राधिकरणों/समितियों द्वारा सामान्य तरीके से अर्थात कानूनी सेवा प्राधिकरण अधिनियम की धार 19 के तहत आयोजित की जाती हैं। इनमें निम्नलिखित प्रकार के मामले आते हैं, वैवाहिक/पारिवारिक मामले, आपराधिक मामले जो बढ़ सकते हैं, भूमि अधिग्रहण संबंधी मामले, श्रम विवाद, कामगारों को मुआवजा, बैंक वसूली मामले, पेंशन संबंधी मामले, आवास बोर्ड और मलिन बस्ती निपटान मामले और गृह ऋण मामले, उपभोक्ता शिकायत मामले, बिजली संबंधी मामले, टेलीफोन बिल के मामले, गृह कर सहित नगरपालिका संबंधी मामले और सेलुलर कंपनियों के साथ विवाद के मामले।
जनोपयोगी सेवाओं से संबंधित समाधान और व्यवस्था के विवादों के संदर्भ में मुकदमेबाजी से पहले का प्रबंध प्रदान करने के लिए संसद ने वर्ष 1987 में कानूनी सेवा प्रशासन अधिनियम में संशोधन किया था। संशोधित अधिनियम जनोपयोगी सेवाओं से संबंधित विवादों के संदर्भ में न्याय व्यवस्था के लिए स्थायी लोक अदालतों की स्थापना को अनुबंधित करता है जैसे परिवहन सेवा, डाक, संचार, बिजली आपूर्ति, अस्पतालों/दवाखानों की सेवा, बीमा सेवा आदि। इस जनोपयोगी सेवा के साथ विवाद वाले पक्ष को कानूनी सेवा(संशोधन) अधिनियम, 2002 की धारा 22 बी के तहत स्थायी लोक अदालत को आवेदन करना होता है।
इस संशोधन के बाद जनोपयोगी सेवाओं के लिए स्थायी लोक अदालतों की स्थापना 16 राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों, जैसे आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, असम, छत्तीसगढ, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, मेघालय, पंजाब, राजस्थान, सिक्किम, त्रिपुरा और केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़ में की गई है।
COURTESY Mr SHIV KISHOR